Monday 23 May 2011

ऐ राही राहगुज़र ..., 

उस पथ पे तू जो चल ,

जिस पथ पे हो सवेरा ,

और तेरी खुशियों का बसेरा |

क्यों सोचता है तू इतना ,

कौन अपना कौन पराया ,

ये रिश्ते है इतने लगते सस्ते ,

जो बनकर है यु फिर टूट जाते |

जब खोना ही है उनको ,

तो क्यों सपने है ये दिखाते ,

अपना सा हमें बनाके ,

गैरों की तरह है छोर जाते |

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